Supreme Court का महत्वपूर्ण आदेश, लोक सेवकों पर मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में मुकदमा चलाने के लिए सरकार से पूर्व मंजूरी जरूरी
Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने मनी लॉन्ड्रिंग (PMLA) से जुड़े मामलों में लोक सेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए एक अहम निर्णय लिया है। न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टिन जॉर्ज मसिह की पीठ ने इस मामले में एक महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए कहा कि जब कोई लोक सेवक सरकारी कर्तव्य के दौरान मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में गिरफ्तार किया जाए, तो उसके खिलाफ मुकदमा चलाने से पहले संबंधित सरकार से पूर्व मंजूरी प्राप्त करना अनिवार्य होगा। इस आदेश के बाद, यह साफ हो गया है कि लोक सेवकों को कानूनी सुरक्षा मिलनी चाहिए, ताकि उनके खिलाफ कार्रवाई केवल सही कारणों से की जा सके।
इस आदेश के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय (ED) की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें तेलंगाना हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती दी गई थी। हाईकोर्ट ने एपी सरकार के दो वरिष्ठ नौकरशाहों के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में दाखिल शिकायत को खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट रूप से कहा कि जब किसी लोक सेवक के खिलाफ आरोप सरकारी कार्यों के दौरान लगते हैं, तो उनके खिलाफ कार्रवाई करने से पहले संबंधित सरकार की स्वीकृति लेना जरूरी है।
क्या था मामला?
यह मामला एक आरोप से संबंधित था, जिसमें आंध्र प्रदेश के दो वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप थे। प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने इन अधिकारियों के खिलाफ शिकायत दर्ज की थी, जिसमें उन पर सरकारी पद का दुरुपयोग करने का आरोप था। आरोप है कि इन अधिकारियों ने निजी कंपनियों को फायदे पहुंचाए, जिससे सरकारी खजाने को बड़ा नुकसान हुआ। इनमें प्रमुख आरोपी बीभू प्रसाद आचार्य और आदित्यनाथ दास थे, जो आंध्र प्रदेश सरकार के आईएएस अधिकारी हैं।
कानूनी प्रावधान और सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने भारतीय दंड संहिता (CrPC) की धारा 197(1) का हवाला देते हुए कहा कि यदि कोई लोक सेवक या न्यायधीश सरकारी कार्यों के दौरान अपराध करता है, तो उस पर मुकदमा चलाने के लिए सरकार की अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य है। इस धारा का उद्देश्य लोक सेवकों की कार्य स्वतंत्रता की रक्षा करना है, ताकि वे अपने कर्तव्यों को निभाने में न डरें। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह सुरक्षा केवल उन्हीं मामलों में लागू होती है, जब अधिकारी ने अपनी आधिकारिक भूमिका में कोई अपराध किया हो। यदि कोई अधिकारी अपनी आधिकारिक भूमिका से बाहर जाकर अपराध करता है, तो उसे इस सुरक्षा का लाभ नहीं मिलेगा।
इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि ED के द्वारा यह तर्क नहीं माना जा सकता कि पीएमएलए के प्रावधानों का दायरा भारतीय दंड संहिता से ऊपर है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पीएमएलए के तहत भी CrPC की धारा 197 का पालन करना जरूरी है, और इसका उद्देश्य लोक सेवकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है, खासकर जब वे सरकारी कार्यों के दौरान अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे होते हैं।
ED का तर्क और सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने अपनी याचिका में यह तर्क दिया था कि पीएमएलए के तहत आरोपितों के खिलाफ कार्रवाई करते समय CrPC की धारा 197(1) की आवश्यकता से बचा जा सकता है, क्योंकि पीएमएलए का उद्देश्य मनी लॉन्ड्रिंग से संबंधित अपराधों की जल्दी और प्रभावी जांच करना है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ED के इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि CrPC की धारा 197 के तहत लोक सेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सरकार की मंजूरी आवश्यक है, भले ही मामला पीएमएलए से संबंधित हो।
लोक सेवकों की सुरक्षा और सरकार की मंजूरी
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि धारा 197 का मुख्य उद्देश्य लोक सेवकों को न्यायिक उत्पीड़न से बचाना है। हालांकि, यह सुरक्षा अनिश्चितकालीन नहीं है। यदि किसी लोक सेवक के खिलाफ आरोप सशक्त और वास्तविक हैं, तो सरकार की मंजूरी के बाद उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है। इस सुरक्षा के तहत, यह सुनिश्चित किया जाता है कि लोक सेवक केवल अपनी आधिकारिक जिम्मेदारियों को निभाने के दौरान ही न्यायिक उत्पीड़न से बचें, और इस तरह से मनी लॉन्ड्रिंग जैसे मामलों में भी उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन किया जाए।
तेलंगाना हाईकोर्ट का आदेश
यह पूरा मामला तेलंगाना हाईकोर्ट से शुरू हुआ था, जहां दो वरिष्ठ आंध्र प्रदेश के अधिकारियों के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों की सुनवाई हो रही थी। हाईकोर्ट ने इस मामले में आरोपितों की याचिका पर फैसला सुनाते हुए कहा था कि आरोपों पर आगे बढ़ने से पहले सरकार की मंजूरी प्राप्त की जाए। इसके बाद ED ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी, जिसे अब सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जो लोक सेवकों की सुरक्षा को सुनिश्चित करता है और यह स्पष्ट करता है कि मनी लॉन्ड्रिंग जैसे गंभीर आरोपों में भी सरकारी अधिकारियों पर मुकदमा चलाने से पहले सरकार की मंजूरी आवश्यक है। यह निर्णय न्यायिक प्रणाली में पारदर्शिता और निष्पक्षता बनाए रखने में मदद करेगा, ताकि कोई भी अधिकारी अपने कर्तव्यों को निभाने में डर महसूस न करे। यह निर्णय आगे चलकर भारत में भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में कानूनी प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है, क्योंकि अब अधिकारियों पर कार्रवाई से पहले संबंधित सरकार की मंजूरी जरूरी होगी।